बुधवार, फ़रवरी 11, 2009




विश्व धरोहर गावं नग्गर का अद्भुत सौंदर्य और गुप्त चिन्ह कुछ इस तरह चित्रित हुए मेरे मानस पर....

नग्गर
वह फ़िर सात घोडों के रथ पर
सवार होकर आया
देवदार के घने जंगलों को देख
झक्क सफ़ेद चांदी से लदे पहाड़
अपने हिस्से की धूप भी
यहीं लुटाना चाहता है
यह नादाँ सैलानी
यक नज़र मुडी इधर
यह किस शिल्पी ने उकेरा हिमालय
रोरिक वीथिका को देख
ठिठक गया सूरज का एक घोड़ा
कैसल में यूँ उतरी एक रश्मि
ज्यूँ माँ से मिलने पीहर चली आयी बेटी
त्रिपुरा सुंदरी के शिखर पर बैठ
न जाने क्या कह रही
भोर से गायब है लाल चिड़ी
माँ पुकार रही लौट आओ अब
सूर्यास्त हो चला
घोड़े अब तलक देख रहे पीछे मुड़कर
वह सारथी बेमन हांकता जा रहा रथ
एक कील फ़िर फंसी
इस 'कालचक्र' में
सूरज क्या जाने क्या टूना हुआ है?
भंडार गृह में सदियों से रखे हैं
राक्षसी मुखौटे
पर इस रहस्य को वे क्या जाने?
राजमहल का तलघर भी बंद है.....
अलबत्ता
नग्गर के बर्सेलों ने दोपहर
में कुछ बुदबुदाया तो था......

मंगलवार, फ़रवरी 03, 2009

क्या स्नोवा स्वयम सिद्ध नहीं?


क्या यह आवश्यक है कि एक रचनाकार अपनी रचना के साथ सारी दुनिया के सामने अपने बाहरी व्यक्तित्व को भी साबित करे? ऐसे बहुत से उदहारण हैं जिनसे पता चलता है कि दुनिया किसी कृति से तो सदियों तक चमत्कृत रही, किंतु कृतिकार को प्रत्यक्ष रूप में नही देख सकी। स्नोवा तो रचना जगत में एक शुरुआत है और इसी पड़ाव में उन्हें तय करना है कि उन्हें अपनी रचना के लिए कैसा परिवेश चाहिए। उनके पसंदीदा रचनाकार लियो नारदो डी विन्ची की मोनालिज़ा आज भी रहस्य बनी हुई है। कोई कहता है वह उनकी प्रेयसी थी और किसी की नज़र में वह एक गुमनाम मॉडल । मगर आज भी यह मान्यता है कि मोनालिज़ा और कोई नही स्वयम लियो नारदो ही थे । यह जिद करना कि मोनालिज़ा नही थी या अवश्य थी, बचकाना लगता है। खुदा एक ऐसे एहसास का नाम है जो सामने रहे और दिखाई न दे। स्नोवा कि रचनाएँ भी निश्चय ही किसी अन्य पड़ाव पर हमें ले जाना चाहती हैं। पता नही कुछ लोग यह घोषणा क्यों किए जा रहे हैं कि स्नोवा किसी से मिलती नही या किसी ने उन्हें देखा नही। संयोग से जो लोग उनसे मिले हैं, उनमे एक मैं भी हूँ। सैन्नी अशेष उनके सह लेखक हैं और भाषा गुरु भी। स्त्री पुरूष के जागरूक संबंधों और जीवन मरण के रहस्यों पर लिखने वाले इन दोनों लेखकों की आगामी रचनाओं का साहित्य जगत को बेसब्री से इंतजार है. हमें ऐसे कुछ लोग आसानी से कहीं भी मिल जाते हैं, लेकिन हम प्राय दूर के आकर्षण में उलझ कर रह जाते हैं। किसी भी लेखक की रचना को समझे बिना हम उसके होने के अर्थ कैसे जान सकते हैं? स्नोवा कि कहानियो के आधार पर देखें तो क्या हमने कभी अपने होने के अर्थ तलाशे हैं? ," बुल्लेया पढ़ पढ़ आलम फाज़ल बनेया, कदे अपने आप नु पढ़या ई नई, भज भज बड़दा ई मंदर मसीति, कदे अपने अन्दर तू बडया ई नई॥" इस प्रवाह को सतत जारी रखें, यही सच्चा संवाद और सचा मिलन है।