शुक्रवार, मार्च 27, 2009

kirayedar



उम्र भर
एक अजीब सी उपेक्षा सहता है वह
चारदीवारी के भीतर
मकान मालिक की तरह ही
रहता है
पर उसकी तरह
महसूस नही कर पाता
शान्ति भंग न हो जाए कहीं
आहिस्ता आहिस्ता
ठोंकता है दीवार पर कील
हर महीने की अन्तिम तारीख को
बढ़ जाता है तनाव
और फ़िर अदायगी के बाद
कुछ दिनों के लिए हो जाता है निश्चिंत
सुनहरे सपने देखता है कभी कभी
सोन मछलियाँ तैरती
उसके ड्राइंग रूम में
उसे भी हक़ है की वह सोचे
उसका भी हो अपना मकान
और वह भी ठोंक सके
बेसाख्ता अपनी दीवार में कील......
शशि भूषण पुरोहित

बुधवार, मार्च 25, 2009

कारपोरेट राजू



राजू जा रहा है
आखिरी फ़ैसला कर चुका है वह
बड़े साहब के रोकने पर भी नही रुका
उसके जाने की ख़बर से मायूसी है
बदहवास है ख़ुद राजू भी
कारपोरेट जगत में
ख़ुद भी अदब से
कारपोरेट हो गए राजू को
धीरे धीरे भूल जाएगा यह स्टाफ
उसके जाने के बाद की
संभावित मुश्किलों की
आशंका पसरी
ऑफिस में छाई नमी
और उसमे भीग गया राजू
दफ्तर की तर दीवारों ने
मानो एक स्वर में कहा
राजू! तुम रुक जाते तो अच्छा होता
पेंट्री में सलीके से सहेजे डिब्बे
चकाचक क्राकरी और
रसोई की भीनी खुशबु
सबको एक गहरी नज़र महसूसा उसने
उतर आए दो सुनहरे मोती
हाथों पे उसके
चाय की खुशबु उड़ जायेगी अब
उसके हाथों के साथ
बड़े साहब की हर ज़रूरत के लिए
मस्तिष्क में बना रखे थे
जो अलग अलग फोल्डर
डिलीट हो जायेंगे अब
रुखसत के वक्त भी
बड़ी संजीदगी से
सहेजता रहा वह हर सामान
एक आम कर्मी ही था
इसलिए इस व्यस्त दिनचर्या में
सब यूँ ही हो गया समायोजित
अगले दिन दफ्तर में आ गया एक नया 'राजू'
सब कुछ फ़िर शुरू हो गया
पहले की तरह
पर नए राजू की सूक्षमदर्शी ऑंखें
अभी नही देख पा रही पुरी तरह से गर्द को
कुछ वक्त लगेगा
और धीरे धीरे सीख जाएगा वह भी
टेबुल पर प्याली रखने का एटीकेट
शशिभूषण पुरोहित.........