शुक्रवार, फ़रवरी 10, 2012

आखिर खींच लाई दोस्ती की डोर....





विश्व स्तर पर मानवाधिकारों के प्रबल समर्थक एवं नोबेल पुरस्कार विजेता डेसमंड टुटू को आखिर दोस्ती की कच्ची डोर भारत खींच ही लाई। शुक्रवार को मैकलोडगंज की सरजमीं दो नोबेल हस्तियों की मौजूदगी की गवाह बनी और दोस्ती की मिसाल फिर कायम हो गई। चीन के कथित हस्तक्षेप ने विश्व की इन दो हस्तियों को मिलने से लाख रोक लिया मगर मानवता का भविष्य तय करने वाले समाज के इन सेवकों को सरहदों ने रास्ता दे ही दिया। दोस्ती सच्ची थी और धागे और मजबूत हो गए। शांति के लिए नोबल पुरस्कार से सम्मानित दलाई लामा से दोस्ती का वादा निभाने आखिरकार ८१ वर्षीय डेसमंड टूटु सरहदें लांघकर धर्मशाला पहुंच ही गए। तिब्बतियों के सर्वोच्च धर्मगुरु की ओर से कई मर्तबा रिपब्लिक आफ साउथ अफ्रीका को वीजा के लिए आग्रह किया गया, लेकिन सरकार ने यहां तक केपटाऊन की अदालत ने भी अपना फरमान सुना दिया। साऊथ अफ्रीका बेशक दलाई लामा की वीजा रोकने के पीछे वजहों को तकनीकी मानता हो मगर यह जाहिर है कि चीन के साथ साऊथ अफ्रीका के बढ़ते व्यापारिक संबंधों ने दलाई लामा को वहां जाने से रोक दिया। दलाई लामा गत ८ अक्तूबर को डेसमंड टूटु के जन्मदिवस पर उनसे मिलना चाहते थे। वीजा अनुमति न मिलने से दोनों दोस्तों के दिल टूटे और दलाई लामा ने यहां तक कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन वह अपनी वजह से किसी को तकलीफ नहीं देना चाहते। साऊथ अफ्रीका के पहले ब्लैक आर्कबिशप के रूप में पहचाने जाने वाले डेसमंड टुटू को १९८४ में नोबल पुरस्कार मिला जबकि दलाई लामा को चौदहवें दलाई लामा तेंजिन ग्यात्सो को १९८९ में इस सर्वोच्च पुरस्कार से नवाजा गया। माना जाता है कि दोनों की दोस्ती १९९० के बाद परवान चढ़ी। मैकलोडगंज में दोनो ही नोबल हस्तिायां जब मिलीं तो एक पल के लिए डेसमंड और दलाई लामा भावुक हो उठे। 

कोई टिप्पणी नहीं: